हठयोग

हठमार्ग में ऊर्जा का उर्धगमं करना ही उसकी सार्थकता है। सामान्यत हमारी जो ऊर्जा मूलाधार में लगी होती है 
योग की विशेष क्रियाओं (विपरीतकर्णी आदि) द्वारा उसे ऊपर उठाने का अभ्यास करना चाहिए।
मूलाधार में ऊर्जा का होना अर्थात भोग प्रवृत्ति का होना। 
निरन्तरता के साथ मूलाधार पर ध्यान लगा कर इसे उर्जित कर देने पर स्थिति बदलने लगती है ओर साधक में - वीरया निर्भयता , जागरूकता, जैसे गुण आने लगते हैं जो कि आगे की साधना के लिए आवश्यक हैं। 
इसी प्रकार जब साधक ह्रदय प्रदेश में स्थित अनाहद चक्र तक पहुंचता है तो यहां से आध्यात्म का प्रकाश और चित्त के स्वरूप का ज्ञान होने लगता है। 
और यह बोध हो जाता है के पुरुष (आत्मा) और बुद्धि सर्वथा भिन्न हैं। इसे ही *आध्यात्मप्रकाश* कहा जाता है। यह आत्मा का प्रकाश बुद्धि को प्रकाशित कर के साधक को आगे की अवस्थाओं तक पहुचने के योग्य बनाता है। 
इसप्रकार साधना करता हुआ साधक परम गति तक पहुंचता है।

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